Thursday, July 08, 2010

Zidd...

क्या ख्वाइश थी क्या जुस्तजू, क्यों रात भर जगे
रोशन न थी ये महफ़िल आज, क्यों रात भर जगे

न मेए ही थी बहलाने को, न साकी का साथ था
न ग़ज़ल थी, न नज़म कोई क्यों रात भर जगे

न वादा किसी के आने का, न वादे पे जाना था
तन्हा थमे इस लम्हे पर क्यों रात भर जगे

टुकड़े हुए हर बार क्यों पलकों से चुना यूँ
ख्वाब सेहर के गुलाम हैं, क्यों रात भर जगे

रंग चढ़ते भी अगर स्याह चादर पर कभी
चाँद सुर्ख होगा सोच कर क्यों रात भर जगे

जहाँ लफ्ज़ क़ैद हों नसीहत और इल्म में
किस गुफ्तगू की आस में यूँ रात भर जगे

फूल खिले जब भी बूँद बह आई ज़मीन पर
यूँ बंजर खुली आँखों से क्यों रात भर जगे

सौंधी थी महक शाम तक जो बासी हो चली
मसले हुए अरमानो पे क्यों रात भर जगे

किस्से नहीं कहता कोई ख़ामोशी की जुबां
हंगामा शुरू सेहर से हो क्यों रात भर जगे

‘मिराज’ नहीं मुकम्मल ज़िन्दगी इतना तो जाना हो
जो है नहीं सबब क्यों ढूँढें क्यों ढूँढें रात भर जगे

Mayfly.

Sun-kissed nights,  run wild and sure mornings, shrouded in grey walk slow,  noons burn high, and so do the hearts. like dawns I linger, lik...