यूँ कहा कि कुछ कहा ही नहीं, ये गुफ्तगू हुई भी तो क्या हुई,
यूँ जिए की लगा हम जिए ही नहीं, ये ज़िन्दगी हुई भी तो क्या हुई.
शब् से रूठे कंदील जहाँ हम गए, शमा जली कब जल कर बुझ गयी,
ऐसे रोशन हुए कुछ दिखा ही नहीं, ये सेहर हुई भी तो क्या हुई.
न दोस्त, न दुशमन, न रिश्ता कोई, हम हैं भी और होकर भी कुछ नहीं
मेहमाँ भी नहीं, मेजबान भी नहीं, ये महफ़िल हुई भी तो क्या हुई.
कुछ जलसे हैं मेए जिसका हिस्सा नहीं, किस नीयत से चलते हैं मालूम नहीं,
तेरे सजदे में आबरू का सौदा करें, ये इबादात हुई भी तो क्या हुई.
खौफ आँखों में है, उसकी इज्ज़त नहीं, उस्ताद है वो लेकिन आलीम नहीं,
मेरे इल्म में शामिल बसीरत नहीं, ये तालीम हुई भी तो क्या हुई.
न तुक, काफिया, न ही मकसद कोई, लफ्ज़ यूँ ही पिरोये हुए हैं कई,
कोई कैसे न पूछे तुमसे ये ‘मिराज’, ये ग़ज़ल हुई भी तो क्या हुई.
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