खला मुक़द्दस है, और ख्वाब पाक़ सलीब मेरे मौला,
ये तजस्सुम भी क्या क़यामत के रोज़ तक्मील होगी…
वक़्त से कैसी शिकायत, कैसा शिक्वा मेरे मौला,
दर्द रवायत है, आह, इल्म में तब्दील होगी…
सर झुकाया है जरूर, घुटने टेके नहीं मौला,
मेरे किरदार का इम्तेहां क्या सिर्फ अन्जील होगी...
इस दामन के ये दाग भी हैं पाक मेरे मौला,
गुनाहों की फैरिस्त में सवाल, और जुस्तजू ज़लील होगी…
तू वाकिफ़ न हो मेरी रूह से ये मुमकिन नहीं मौला,
नशेमन की तलाश में बशारत शायद तहलील होगी…
मुम्किन है कुछ सब्र होगा मुझमें तेरा ‘मौला’
कुछ आतिश “मिराज” की तुझमें भी तख्मील होगी.
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