ये कौन हैं ख्याल जो मेज़बान हो गए,
क्यों अपने ही घर में हम मेहमान हो गए.
मैं देखूँ मेरे जिस्म के बँटते हुए टुकड़े,
कब मज़ार बने कब महफ़िल कब दुकान हो गए.
ये कैसी है सलीब, उठाये हर कंधा है जिसे,
ये कब खुदा बने, कब मसीहा, कब शैतान हो गए.
ये हक इश्क का सांझा, ये प्रीत तुझसे क्यों मेरी,
अदब तेरा, हुनर तेरा, क्यों मेरे गुमान हो गए.
अभी तो रूह जलती है, अभी तो मौत बाकी है,
कि इस महफ़िल में साकी, सभी अन्जान हो गए.
मोहब्बत मेरी ‘मिराज’, राख, कच्चा कोयला,
पाक माहताब पर दाग खुदाई के निशान हो गए.
Thursday, September 29, 2011
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