ये लम्हा हो के रोशन यूँ बुझा ये क्या सवाल है,
जो गुज़र रहा है लम्हा वो कहते हैं की एक साल है.
यूँ फ़िक्र तो नहीं की कब आये थे कब चले गए,
हर याद में लिपटी हुई इक जुस्तजू बहरहाल है.
बिस्मिल्लाह के लिए मशविरा लेते हैं सय्यारों से,
होना चाँद का काइनात में खुद भी तो एक ख्याल है.
ग़ज़ल में लहू भी है, और कतरा कतरा जलते तेल का,
इस महफ़िल में साकी क्यूँ शमा ही बनी इक मिसाल है.
दहलीज़ ही बाकि है अब इन खँडहर इमारतों के बीच,
जो ढूँढ ले दर यहाँ पर खुदा का इक कमाल है.
क्यों रुसवा हुए कि बेपर्दा हैं, महफ़िल में हम “मिराज”
हर चेहरे पर नकाब सा दमकता हुस्न-ओ-जमाल है.
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Mayfly.
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1 comment:
HOW Do you write so well??? How do u do it?
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