वो क्यों आज कलम फिर पुरानी ढूँढ़ते हैं ,
वक़्त में ठहरी हुई कोई निशानी ढूँढ़ते हैं।
पैरों से तेज़ चलते इन रास्तों में क्यों,
वो मंज़िल्लों के किस्से कहानी ढूँढ़ते हैं।
नए रंग रौनक की दुनिया से जुदा,
वो ज़ख्मों में दर्द जुबानी ढूँढ़ते हैं।
कोई ग़ज़ल, कोई कता, न रुबाई की तड़प,
वो महफ़िल यूँ रुसवा बेगानी ढूँढ़ते हैं।
गोया रोशन ही न हो ये दिन और न रात,
वो दौ-पहर में शमा अन्जानी ढूँढ़ते है।
तारीख ने जो लहू से कई आयतें लिखी,
हर लफ्ज़ में वो सिफ़र बेमानी ढूँढ़ते हैं।
मिट्टी है, यादें हैं, जो यहाँ भी वहां भी,
क्यों करबला में ही वो कुर्बानी ढूँढ़ते हैं।
साँस चलती है, दिल भी धड़कता है “मिराज"
फिर कहाँ सब बेसबब जिंदगानी ढूँढ़ते हैं।
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