Sunday, November 21, 2010

Inteezaar 1

आज रात फिर, लकीरों के बीच,
कुछ ढून्ढ रही थी,
चाँद बादलों की चादर ओढ़े,
दूर मुस्कुरा रहा था.
उस ताम्बई चाँद से भी,
हैरान थी रात.
सय्यारों ने उसके माथे पर,
ज़िन्दगी तख्सील की थी.
रात शफ़क़ की रौशनी में,
उसे एक नज़र भर देख लेती,
पढ़ लेती तवारीख.
लेकिन रात लेट हो गयी थी.
आफताब से सामना न हो,
इस इंतज़ार में…
जिन दरीचों से रात रोज़,
आफताब को जाते देखा करती है,
उन्ही दरीचों के पीछे,
मुझे भी, न जाने,
किस आफताब के जाने का,
इंतज़ार है…

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Mayfly.

Sun-kissed nights,  run wild and sure mornings, shrouded in grey walk slow,  noons burn high, and so do the hearts. like dawns I linger, lik...