Thursday, August 04, 2011

एक गुफ्तगू ...

खला मुक़द्दस है, और ख्वाब पाक़ सलीब मेरे मौला,

ये तजस्सुम भी क्या क़यामत के रोज़ तकमील होगी…

वक़्त से कैसी शिकायत, कैसा शिक्वा मेरे मौला,

दर्द रवायत है, आह, इल्म में तब्दील होगी…

सर झुकाया है जरूर, घुटने टेके नहीं मौला,

मेरे किरदार का इम्तेहाँ क्या सिर्फ अन्जील होगी...

इस दामन के ये दाग भी हैं पाक़ मेरे मौला,

गुनाहों की फैरिस्त में सवाल, और जुस्तजू ज़लील होगी…

तू वाकिफ़ न हो मेरी रूह से ये मुमकिन नहीं मौला,

नशेमन की तलाश में बशारत शायद तहलील होगी…

मुमकिन है कुछ सब्र होगा मुझमे तेरा ‘मौला’,

कुछ आतिश “मिराज” की तुझमे भी तख्मील होगी.

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Mayfly.

Sun-kissed nights,  run wild and sure mornings, shrouded in grey walk slow,  noons burn high, and so do the hearts. like dawns I linger, lik...