नज़र नाज़ुक हैरान सर-ऐ-आम हुई है
कब सुबह हुई और कब शाम हुई है
शमा बुझ गयी परवाने जलते ही रहे
आज मय एक तनहा जाम हुई है
उम्र भर दास्ताँ कई तहों में लिखी
दो लफ़्ज़ों में ही गुफ्तगू तमाम हुई है
चाँद टपका न रात भरी आँख से सनम
लबों की ये धूप भी गुमनाम हुई है
ये मंज़र नया भी पुराना भी है
ख़ामोशी ही तूफ़ान का पैगाम हुई है
इस रंग-ऐ-महफ़िल में संभलना ए 'मिराज'
यहाँ कोरी हया भी बदनाम हुई है